ॐ ब्रह्म सत्यम् सर्वाधार!
*सतगुरु चरण निवासी भगत बनारसी दास जी*
-अर्चना गुलाटी-
ईश कृपा बिना गुरू नहीं, गुरू बिना नहीं ज्ञान। ज्ञान बिना आत्मा नही, गावहीं वेद पुरान।।
समता के प्रवर्तक व वर्तमान काल के परम योगीराज श्री सदगुरुदेव महात्मा मंगत राम जी के सौम्य व्यक्तित्व में चुंबक जैसा अनोखा आकर्षण था जिसके चलते अनेक व्यक्ति आपकी ओर खींचे आते थे। उस चुम्बकीय व्यक्तित्व की ओर खींचने वालो मे से एक नाम है श्री बनारसी दास जी का।
भगत बनारसी दास जी महाराज जी के सबसे घनिष्ट व सबसे अधिक समय तक निकट रहने वाले शिष्यों में थे।
श्री महाराज जी की विशेष कृपा व आशीर्वाद भगत जी पर था ।
(श्री बनारसी दास जी जिनको संगत समतावाद के सभी प्रेमी सज्जन, माताएँ व बच्चे "भगत जी" कहते थे। )
सच्चे गुरू की प्राप्ति भी ईश्वर कृपा से होती है। गुरू शिष्य रिश्ता एक ही जन्म का नहीं बल्कि अनेकों जन्म के आत्मिक तारों से जुड़ा हुआ होता है।
सच्चे गुरू की प्राप्ति भी ईश्वर कृपा से होती है। गुरू से भेंट हो जाने से जीवन की दशा ही बदल जाती है, जीवन का दृष्टिकोण ही बदल जाता है, जिससे जीवन की धारणाएं बदल जाती है। जीवन में प्रकाश भर देता हैं। भक्ति और सेवा की भावनायें उत्पन हो जाती है। जीव सतगुरु के सानिध्य में अपने जीवन को गुरू अनुरूप ढालते की कोशिश करता है।
यही कारण है कि भगत बनारसी दास जी के पूर्व संस्कार और गुरू कृपा के कारण आध्यात्मिक रंग शीघ्र चढ़ गया।
जीवन भर ब्रह्मचारी रहकर, गुरुदेव की सेवा में रहकर जीवन का वास्तविक लाभ प्राप्त किया ।
*भगत जी का जीवन परिचय*
ऐसे परम भक्त बनारसी दास जी का जन्म सन् 1916 में जिला रावलपिंडी पाकिस्तान में एक उच्च खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री नत्थुमल खन्ना और माता का नाम श्रीमती गुर देवी था। छोटी आयु में ही इनके पिता जी का स्वर्गवास हो गया था। जिस कारण इनका पालन व पोषण माताजी व इनके बड़े भाई जी ने किया। स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के पश्चात आपने सन् 1936 में रियासत कश्मीर के कोहाला नामक स्थान पर जाकर दुकान खोली। वहाँ पर आपकी मित्रता ठाकुर दास दीवान सिंह से हो गई। चूंकि भगत जी की रूचि शुरू से ही साधु - संतों की संगत में थी, इसीलिए अब अपने मित्र दीवान सिंह के साथ साधु - संतों की संगत करते तथा मंदिर - गुरुद्वारों में जाकर भजन कीर्तन सुनते रहते थे।
*सद्गुरू देव से भेट*
साचा गुर हरि रूप है, सकल जियाँ आधार। "मंगत" पड़यो चरन तिस, कर दण्डवत बारम्बार।।
भगत जी को जिस स्थान पर किसी सन्त महात्मा का पता चलता, तुरंत पहुंच जाते। मई सन् 1938 में इनकी भेंट परम संत श्री सद्गुरुदेव महात्मा मंगत राम जी से हुई। उन दिनों सतगुरु देव कोहाला गांव जलमादा के बाहर एक कुटिया में एकांतवास कर रहे थे। वहां आपने 35 दिन का घोर तप किया। जलमादा निवासी प्रेमियों की प्रार्थना पर वहां तप की समाप्ति पर एक विशाल सत्संग का आयोजन किया गया। सूचना मिलने पर भगत जी भी अपने मित्र के साथ वहां पहुंचे।
पूरन भाग कोई गुरमुख जागे, रैन दिवस लिव लाई। "मंगत" निर्मल गत को पावे, प्रभ चीन भयो सरनाई।।
एक दिन गुरू दर्शन करने के लिये पहुंचे, तो साधारण तौर पर नमस्कार करके बैठ गये। गुरू देव ने कुछ देर मौन को तोड़ते हुए आप से वार्तालाप शुरू किया :-
*गुरूदेव* - प्रेमी किधर से आये है?
भगत जी - (दोनों हाथ जोड़कर) कोई पता नहीं कहां से आये है)
इस मुलाकात का भगत जी पर इतना प्रभाव पड़ा कि गुरू चरणों मे ही रहने की प्रार्थना करने लगे। कई बार समझा बुझा कर वापिस अपने पैतृक कार्य करने के लिये यह कह कर कि फकीरों के साथ रहने में कई प्रकार की कठिनाइयाँ होती है - वापस भी भेजा।
कुछ समय के पश्चात भगत जी की बार - बार नम्र प्रार्थना और भक्ति निष्ठा को देखकर आखिर सन् 1939 में अपनी सेवा में रहने की अनुमति दे दी। भगत जी गुरू आदेश का पालन करते हुये, घर - बार का त्याग कर दिया।
एक दिन श्री सत्गुरू देव ने भगत जी को कहा - "बच्चू! तू नही जानता कि इनका तेरे साथ क्या सम्बन्ध है।" सत्पुरुष अन्तर्यामी होते हैं ही इस बारे मे भली भाँति जानते है। साधारण बुद्धि इस गहराई में नही जा सकती।
भगत बनारसी दास जी ने जो सेवा श्री सदगुरुदेव के चरणों मे रह कर की, वह वास्तव में अटूट थी, और संगत समतावाद के लिये गुरू भक्ति का एक आदर्श उदाहरण है।
*भगत जी को सिमरन की हिदायत*
आदि से तुम हमकी एक ही जाता। गुप्त भेद न जानो 'बनारसी दासा'।। हम तुममें भेद न कोई । एह लेख कह बिध वर्णन होई।। जब लग बोध प्राप्त न पाओ।। तब लग तुमको हम भिन्न दरसाओ।।
सेवा कार्यों के चलते भगत जी के पास स्वाध्याय अथवा अभ्यास के लिए समय ही न होता था। परंतु गुरुदेव की चाहना थी कि वह कुछ कमाई करके अपनी आत्मिक उन्नति कर पायें। इसके लिये भगत जी को समय - समय पर सतनाम की कमाई के लिए उपदेश देते रहते थे।
गुरू देव यही कहा करते थे कि" प्रेमी! कमाई तो तुमको स्वयं ही करनी पड़ेगी, तब जाकर रंग लायेगा"
ग्रंथों की रचना
फरवरी 1954 तक, गुरु देव जहां कहीं भी एकांतवास के लिए पहाड़ों, मैदानों और श्मशान में जाते तो भगत जी हर समय उनके साथ रहे।
एकांतवास के दौरान रात समाधि स्थित रहकर लगातार गुरुदेव अमर वाणी का उच्चारण करते फरमाते और भगत जी बिना किसी थकावट को अनुभव किए लगातार लिखते जाते, दूसरे दिन रात की लिखी हुई वाणी गुरुदेव को सुनाते, लिखने में रह गई कमियों को ठीक कर दिया जाता।
इसलिए महाराज जी ने भगत जी से कहा था कि "जो तुम्हें चरणों में रहने की सेवा बक्शी है - वह तेरे बड़े उचे भाग्य है।"
अमर वचनों और अमर वाणी को एक जगह बाद में एकत्रति करके दो पवित्र ग्रंथो "श्री समता प्रकाश " और श्री समता विलास" के रूप आज जो साहित्य संगत समतावाद के पास है उसको महाराज जी ने भगत बनारसी दास जी के द्वारा लिखित रूप से पूर्ण करवाये था।
एकम् वैशाख सम्वत् 2005 (13 अप्रैल 1948) के शुभ दिन जब दोनों ग्रंथ जिल्द बंदी होकर सिद्ध खड्ड मंसूरी में जहां गुरुदेव विराजमान थे आये तो गुरुदेव जी ने भगत जी से फरमाया -
प्रेमी! कलम दवात ले आओ, आज इन पर हस्ताक्षर करके वाणी को समाप्त किया जाये।"
भगत जी आज्ञा का पालन करते हुये, कलम दवात ले आये। उस समय गुरुदेव ने अपने कर कमलों से "श्री समता प्रकाश" के अंतिम पृष्ठ पर चेतावनी लिखकर हस्ताक्षर कर दिये।
फिर भगत जी को आशीर्वाद देते हुए फरमाया :- "प्रेमी ! अब इसे संगत अच्छी तरह संभाल लेगी। तुम्हारी सेवा पूर्ण हुई।
भगत जी ने आशीर्वाद प्राप्त करने पर गुरू चरणों मे नमस्कार किया तो उस समय भगत जी की पीठ पर हाथ फेरते हुये फरमाया : -
"प्रेमी ! इस ग्रंथ ने तेरे हाथ से लिखा जाना था। भाग्यशाली जीवो को ऐसा अवसर मिला करता है। इस सारे कार्य को ईश्वर आज्ञा में समझो, बनारसी! तुमने जो कार्य किया है "जब तक सूर्य - चंद्रमा रहेंगे, तब तक तेरा नाम भी अमर रहेगा।"
4 फरवरी 1954 को भगत जी गुरुदेव की शारीरिक सेवा से तो भगत जी मुक्त हो गये, परंतु गुरु आज्ञा का पालन करते हुये स्थान - स्थान का भ्रमण करके संगत को आपसी प्रेम व संगठित कर समता का मार्गदर्शन करते हुये 14 जनवरी 1987 को करनाल पहुंचे।
इस प्रकार वर्षों तक संगत की सेवा कर 70 वर्ष की आयु भोग कर इस संसार से विदा ली। 15 जनवरी की रात को आप का पार्थिव शरीर करनाल से समता योग आश्रम जगाधरी में लाया गया तथा 16 जनवरी 1987 दिन शुक्रवार को दोपहर 2:00 बजे पूरे सम्मान व महामंत्र के उच्चारण के साथ संगत के सम्मुख पार्थिव शरीर को अग्नि के सुपुर्द कर दिया गया। भगत जी की अस्थियों हथनी कुण्ड, ताजे वालां के साथ बहती यमुना नदी में प्रवाहित कर दी गयीं।
42 वर्षों तक भगत जी ने संगत समतावाद की हर क्षेत्र में अथक सेवा करते हुए प्रकृति के नियमानुसार -
"जो आया तिस जावना, ये खरा खराना खेल। रहना किसे नहीं पावना, जो जुग चारे मेल ।।
अपने जीवन को पूर्ण करके इस धरा पर चिरकाल तक अपने नाम को अमर कर, सदैव के लिये हमारे नेत्रों से ओझल हो गये।
* प्रश्नोत्तर *
प्रश्न : महाराज जी, यह क्या बात है कि आप वाणी उच्चारण करते समय तो लगातार ही उच्चारण करते जाते हैं-मिनटों में कितने ही पद बोल जाते हैं, लेकिन दुरुस्ती (शोधन) के समय ज़रा सी गलती निकालने में दो-तीन मिनट लगा देते हैं?
उत्तर : मालिक की मौज का प्रवाह जब चल रहा होता है, उस समय बुद्धि गलत-सही विचार के द्वन्द्व से परे होती है। उस समय बेदारी हालत से गलत शब्द उच्चारण नहीं होता। तेरी कलम या बेहोशी गलती कर जाती है। उस बेपरवाह हालत का अनुभव वही सत्पुरुष जान सकता है जिसके अन्दर आनन्दमयी मौज जारी है। जब सत्स्वरूप से अलग बहिर्मुखी होकर विचार होता है, तब ज़ेर (मात्राओं) का विचार आता है। सत्शब्द से लगी हुई बुद्धि के अन्दर अपने-आप आत्म-तत्व के सही विचार उठते हैं। उनको ज़रा भी सोचने के वास्ते कोशिश नहीं करनी पड़ ती। अपने-आप ही अमृतवाणी प्रकट होनी शुरू हो जाती है। जैसा भी जिस विचार का संकल्प उठा, उसकी महिमा शुरू होने लग जायेगी-कर्तार की भी और संसार की भी। नई से नई बातों का पता चलता है। लेकिन संसार की मालूमात खेदयुक्त होती है। इस वास्ते उधर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है। जिस प्रकार तपे हुए हृदय में ठंडक-शांति आवे, वह ही विचार सत्पुरुष प्रकट कर जाते हैं। सबको अपना-अपना सत्विश्वास और श्रद्धा ही इस सत्-अनुराग में उन्नति देने वाली है।