ॐ ब्रह्म सत्यम् सर्वाधार!
*गुरु भक्ति एवं गुरु सेवा*
-स्वर्ण लता-
*गुरू सेवा*
शिव सनकादिक गांवदे, बैठे धुर कैलाश। सन्त की सेवा से मिले, निर्भय पद अबनास।।
कैलाश् पर्वत की धुर...सब से ऊँची चोटी पर बैठे भगवान शिव तथा सनकादिक ‘सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनतकुमार’ जैसे ऋशि कुमार ‘कुमारगण’ नित्य ही सन्त ‘सत्गुरू’ की महिमा का गुणगान करते हुए कहते हैं कि सन्त रूपी सत्गुरू की सेवा से ही मनु जन्म-मृत्यु से रहित निर्भय अविनाषी पद को प्राप्त कर सकता है। श्रीगुरूदेव की परा वाणी में आया है-
राम कृश्ण और गुणी बहु, सब सन्तन के शीष। ऊँच घाटी है साध की, आलख पुरख का भेस।।
अर्थात भगवान की भाँति पूजे जाने वाले भगवान राम तथा परम अवतार श्री कृश्ण एवं और भी बहुत से गुणी ज्ञानी सब सत्गुरूओं के ही शिष्य थे, जिन्होंने गुरू-सेवा से ऐसी पूजनीय स्थिति प्राप्त की थी। ये साध अदृष्य पुरुष ‘परब्रह्म’ के वेष में उच्चतम स्थिति के स्वामी होते हैं, जो अपनी उपस्थिति मात्र से दूसरों के भीतर धार्मिकता एवं पवित्रा का संचार करते हैं।
गुरू-सेवा से प्राप्त उच्चतम स्थिति का एक प्रसंग श्रीगुरू अमरदास की जीवन झाँकी से प्रस्तुत किया जाता है। श्रीगुरू अमरदास जी आरम्भ में गुरू-आश्रम में लंगर सेवा में संलग्न थे। तदोपरांत उन्हें श्रीगुरू अंगददेव जी ने स्नानादि के लिए जल की सेवा प्रदान की, जिसके लिए वे अर्ध रात्री में उठकर आश्रम से तीन कोस दूर व्यास नदी से जल ला कर गुरू अंगददेव को स्नान कराते थे। एक बार अन्धकार के कारण जल लाते समय वे जुलाहे की खड्डी में गिर गये। उनके गिरने की आवाज़ सुनकर जुलाहे की पत्नी बोली ‘देखो! वह अमरु निथावाँ गिरा होगा, जिसका कोई घर घाट तो है नहीं! रोटी के लिए गुरू घर में पानी ढोता रहता है और गुरू अंगददेव भी बड़े निर्दयी हैं, जो इस बिचारे पर दया नहीं करते।’ यह सुन कर अमर देव बोले ‘पगली मेरे गुरू को निर्दयी मत कहो! वे तो दया के भण्डार हैं।’ अमरदेव के इतना कहते ही जुलाहे की पत्नी पागल हो गई। जुलाहे ने गुरू अंगददेव को सारी बात सुनाई, जिसे सुनकर गुरू अंगददेव दौड़ पड़े और अमरदास को उठाकर गले से लगा लिया और गद-गद होकर वरदान देने लगे कि यह निथावाँ नहीं है, यह तो निथावों की थाँ, न ओटियों की ओट, न पत्तियों की पत्त, न गत्तियों की गत्त, निर-आश्रयों का आश्रय और निर्लज्जों की लाज है। आज से यह गुरू-पद प्राप्त कर गुरू अमरदेव हो गये। इस प्रकार गुरुसेवा से उन्हें उच्चतम ‘गुरूपद’ की प्राप्ति हुई।
सेवाभाव एक दैवी गुण है, जो मनुश्य के अहंभाव का शमन करके उसमें दैन्य भाव एवं विनम्रता का, जो आध्यात्मिकता में स्थित साधक की एक योग्यता है, का संचार करता है।
जैसा कि श्रीगुरूदेव फरमाते हैं-
दीन गरीबी रसना, दृढ़ निस्चे चित धार। मंगत मिले सतशाँति, दुर्मत मिटे गुबार।।
अर्थात दीन गरीबी ‘दैन्यता तथा विनयशीलता’, जैसे सद्गुणों को दृढ़ निष्चय से हृदय में धारण करो! तभी तुम दुर्मति से उत्पन्न सभी गुबारों से मुक्त होकर सत शान्ति को प्राप्त कर सकोगे।
विनयशीलता न केवल साधक की दुर्मति जन्य ‘अहंभाव’ का हरण करती है, अपितु यह उसे सन्तों के प्रबोधकारी प्रभाव को ग्रहण करने के योग्य भी बनाती है। सत्गुरू सदा सहानुभूतिशील तथा कृपालु होते हैं। उनसे प्रेम शान्ति तथा आनन्द विकीर्ण होते हैं, क्योंकि वे पृथ्वी तल के परमात्मा के अवतार होते हैं। इनकी उपस्थिति मन पर जादु का असर करती है। बिना उनको माध्यम बनाये हम भगवान के दर्शन ओर किसी प्रकार नहीं कर सकते। हम इनकी सेवा किये बिना नहीं रह सकते; ये ही ऐसी विभूतियाँ हैं, जिनकी पूजा करने को हम विवष हैं। ईष्वर ने अपने को अपने जिन पुत्रों में व्यक्त किया है, उनके अतिरिक्त मनुश्य ईष्वर का दर्षन किसी अन्य रूप में नहीं कर सकता।
ईष्वर मनुश्य की दुर्बलताओं को समझता है और मानव जाति का उपकार करने के लिए स्वयं मनुश्य बनकर आता है।
गीता में श्रीकृश्ण जी का कथन है-‘जब-जब धर्म का ह्रास होता है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं मानव जाति का उद्धार तथा दुष्टों का संहार करने पृथ्वी पर मनुश्य रूप में आता हूँ।’’
‘जो अज्ञानी लोग यह न जानकर कि सृश्टि के सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी मुझ ईष्वर ने यह मानव रूप धारण किया है, मेरी अवहेलना करते हैं और सोचते हैं कि यह सम्भव नहीं है, उनका मन आसुरी अज्ञान से आच्छादित रहता है, इसलिए वे उस मानव रूप ईश्वर में सृष्टि के स्वामी ईश्वर का दर्शन नहीं कर पाते।’
ईश्वर के ये महान अवतार पूजनीय हैं। जब हम इन अवतारों का; इन महान विभूतियों का, चिन्तन करते हैं, तब ये हमारी आत्मा के भीतर प्रकट होते हैं और हमें अपने समान बना देते हैं; हमारी सम्पूर्ण प्रकृति बदल जाती है और हम उनके समान हो जाते हैं।
इसलिए पवित्र हृदय से गुरू को प्राप्त करो! बालकवत उसकी सेवा करो! उनका प्रभाव ग्रहण करने के लिए अपना हृदय खोल दो! उनमें परमात्मा के व्यक्त रूप का दर्शन करो! गुरू को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति समझकर उनमें हमें अपना ध्यान केन्द्रीभूत कर देना चाहिये। ज्यों-ज्यों उनमें हमारी यह ध्यान-शक्ति एकाग्र होगी, त्यों-त्यों गुरू के मानव रूप का चित्र विलीन होता जायेगा, यथार्थ ईश्वर ही वहाँ रह जायेगा। ये गुरू ही मानव जीवन के सुन्दर तथा अनुपम पुष्प हैं, जो संसार को चला रहे हैं। जीवन के इन हृदयों के द्वारा व्यक्त शक्ति ही समाज कीमर्यादाओं को सुरक्षित रखती है।
कुछ लोग गुरू-सेवा को गुरू का स्वार्थ समझ कर अपना कल्याण भजन द्वारा करने की मन्त्रणा देते हैं, किन्तु सत्यता यह है कि सेवा और भजन साधना रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं, जिन पर सुर्ति सवार होकर निज धाम पहुँचती है। बिना सेवा के भजन में अंहकार आ जाता है, जो पतन का कारण है। भजन करने वाले ज्ञानी प्रायः इसकी लपेट में आ जाते हैं, किन्तु जो भजन के साथ सेवाभाव को अंगीकार करते हैं वे अंहकार रूपी अग्नि से बच जाते हैं। तत्व- वेताओं के कथनानुसार भजन वहाँ नही पहुँचा सकता जहाँ सेवा पहुँचाती है। सेवक को चाहिये कि गुरू-वाक्य को ही मूल मन्त्र समझे। आत्मज्ञान का मूल गुरूकृपा में ही है। जब सत्गुरू अपने शिष्य पर दया दृश्टि डालते हैं, तो शिष्य के सभी पाप जलकर नष्ट हो जाते हैं; वह संकल्प- विकल्प से रहित होकर निर्विकल्प समाधि में स्थित हो जाता है। जैसा कि श्री गुरूदेव फरमाते हैं-
सन्तन की सत सीख से, मन तन आवे धीर। ‘मंगत’ सेवा साध की, हरे भरम तकसीर।।
गुरू भक्ति
गुरुभक्ति, अर्थात गुरू आज्ञा में रहकर उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए जीवन-यापन करना तथा गुरू-वचन में मर मिटना। जैसा कि श्रीगुरूदेव महात्मा मंगतराम जी ने ‘गुरूपद सिद्धाँत’ वचन 23.में कहा है-
‘‘गुरु का फर्ज़ है कि शिष्य के कल्याण की खातिर अपना सबकुछ निछावर कर देवे और शिष्य का फर्ज़ है कि गुरू-वचन पर अपने आप को मिटा देवे। ऐसे कत्र्तव्य निश्ठ गुरूओं तथा गुरू-वचनों पर मर मिटने वाले शिष्यों के साक्ष्यों से हमारे धर्मग्रंथ भरे पड़़े हैं।
कौन नहीं जानता कि ऋषि विष्वामित्र जी ने रघुकुल भूषण श्रीराम को दिव्यास्त्र प्रदान करने तथा उन अस्त्रों की संहार विधि बताने एवं अन्योनास्त्रों का उपदेश देने तथा राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को 64 कलाओं में निपुण करने में अपने गुरुपद की गरिमा को चार चाँद लगा दिये थे और श्रीराम एवं लक्ष्मण दोनों भाइयों ने यज्ञ में सलंग्न ऋषि विष्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हेतु अपने प्राणों की परवाह न करते हुए छःदिन तक रात-दिन बिना विश्राम किये राक्षसों का संहार करके अपने शिष्यत्व के कर्तव्य को पराकाष्ठा तक पहुँचा कर अपनी अनन्य गुरू-भक्ति का परिचय दिया था।
इसी प्रकार द्वापर युग में श्री कृष्ण एवं बलराम दोनों भाइयों ने अपने सत्गुरू सान्दीपनि के आश्रम में रहकर बड़ी विनम्रता एवं सेवाभाव से आत्मज्ञान एवं विज्ञान में पूर्णत्व प्राप्त कर गुरू-दक्षिणा के रूप में उनके मृत पुत्र को यमराज से वापस ला कर उन्हें तुष्ट किया था। यहाँ भी सत्गुरू सन्दीपनि ने अपने शिष्यों को ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा से उपकृत करके गुरूपद की शोभा को बढ़ाया था तथा श्रीकृष्ण और बलराम ने अपने शिष्यत्व के कर्तव्य को प्राण-पण से पूर्ण करके अनन्य गुरू-भक्ति का परिचय दिया था।
मनुश्य को ऐसे ही आत्मज्ञानी गुरू का सान्निध्य प्राप्त करके अनन्य भक्ति से उसकी सेवा में सदा उपस्थित रहना चाहिये। श्रीगुरूदेव की परावाणी में भी आया है-
‘‘आत्म तत्त परबीन गुर, जब आन मिलाये मीत। ‘मंगत’ तिन की सिख्या, हिरदा करे पुनीत।।’’
अर्थात हे मित्र! आत्मतत्त-प्रवीण गुरू के सान्निध्य और उसकी सत्शिक्षाओं से मानव-हृदय पवित्र हो जाता है। हृदय के पवित्र हुए बिना मनुष्य और किसी भी प्रकार प्रभु से संयुक्त नहीं हो सकता।
गुरू-भक्ति का एक और ज्वलन्त उदाहरण है अर्जुन, जिसने अपने आचार्य गुरु द्रोण के वचनों की पूर्ति हेतु गुरू-दक्षिणा के रूप में राजा द्रुपद को बन्दी बनाकर उनके समक्ष उपस्थित कर अपनी अनन्य भक्ति का परिचय दिया था, किन्तु यहाँ गुरू की स्थिति भिन्न थी, गुरू द्रोण के मन में अपने गुरुभाई राजा द्रुपद के प्रति प्रतिषोध की ज्वाला भड़क रही थी, जिसे शान्त करने के लिए उन्होंने अपने सभी शिष्यों को गुरु-दक्षिणा में राजा द्रुपद को बन्दी बनाकर लाने का आदेश दिया था, जिसे केवल अर्जुन ही पूरा कर पाये थे, किन्तु गुरू द्रोण की मलीन भावना से दी गई शिक्षा न तो उनके शिष्यों के लिए कल्याणकारी सिद्ध हुई और न ही स्वयं उनके लिए। मलीन भावना से दी गई शिक्षा का ही परिणाम था महाभारत का विनाशकारी युद्ध, जिसमें सब कुछ भस्मीभूत हो गया था।
श्रीगुरूदेव द्वारा विरचित गुरुपद सिद्धाँत वचन-3 के अनुसार ‘‘पारमार्थिक गुरू वह ही हो सकता है, जिसने परम तत्त अविनाषी परमेश्वर में स्थिति हासिल की हो और तमाम तृष्णा विकार से जो पवित्र हो चुका हो, यानी हर वक्त अपने अन्तर विखे परम प्रकाश में जो लीन रहता हो।’’
निश्वैरी निश्कामता, सत पुरुषों से हेत। दुर्लभ पाइये सन्तजन, ‘मंगत’ मस्तक टेक।।
अर्थात निष्वैरी तथा निश्काम सत्पुरुशों से प्रेम रखो! ऐसे दुर्लभ पुरुशों का मिलना अति कठिन होता है। जीवन में कभी उनकी प्राप्ति हो जाये, तो सदा उनके चरणों की बन्धना करो।
महाभारत का एक और पात्र है दानवीर कर्ण! जो अपनी गुरू-भक्ति के लिए प्रसिद्ध है। दानवीर कर्ण जब ब्राह्मण वेष में परषुराम से, जो केवल ब्राह्मणों को ही प्रशिक्षित करते थे, धनुर्विद्या सीख रहे थे, तो एक दिन जब परशुराम अपना सिर कर्ण की जंघा पर रखकर सो रहे थे, तभी एक बिछु ने कर्ण की जंघा में ढंक मार दिया, जिससे कर्ण की जंघा से रक्त प्रवाहित होने लगा और उसे भंयकर पीड़ा सताने लगी, किन्तु वह इस डर से कि कहीं उसके हिलने-ढुल्ने से गुरू के विश्राम में बाधा न पड़े, बिना हिले-ढुले उस भयंकर पीड़ा को सहन करता रहा। जब परशुराम की आँख खुली, तो वे कर्ण की गुरू-भक्ति पर बहुत प्रसन्न हुए, पर उन्हें शक हुआ कि इतनी सहन शक्ति एक ब्राह्मण में नहीं हो सकती! हो न हो कर्ण ब्राह्मण नहीं क्षत्रिय है और जब उन्होंने कर्ण से इस सम्बन्ध में पूछ-ताछ की तो कर्ण ने अपने ब्रह्मण ना होने की पुष्टि कर दी। तब कुपित होकर परशुराम ने कर्ण को शाप दे दिया कि जो विद्या तुमने छल से सीखी है, वह उस समय तुम्हें विस्मृत हो जायेगी, जब तुम्हें इसकी बहुत आवष्यकता होगी और हुआ भी ऐसा ही। अतः स्पष्ट है कि छल-कपट से ज्ञान अर्जित करना और मन में किसी प्रकार का भेदभाव रखकर ज्ञान प्रदान करना दोनों हानिकारक हैं। इससे न तो शिष्य का कुछ कल्याण होता है और न हीं गुरू की तुश्टि होती है। आत्मोन्नति हेतु ज्ञान का आदान-प्रदान करने वाले दोनों ‘गुरू एवं शिष्य’ को पवित्र होना चाहिये। जैसा कि गुरू-वाणी से स्पष्ट होता है-
सतगुर ऐसा भेंटिये, जाँ को भरम ना कोए। अन्तरगत में रम रह्या, परम शान्त चित होए।।
अर्थात ऐसे सत्गुरू का सान्निध्य प्राप्त करो, जो भ्रमान्धकार से रहित अन्तःदृश्टि प्राप्त हो तथा सदा परम शान्ति में समाहित रहता हो। ऐसे प्रशांत मन सत्गुरू की भक्ति ही फलीभूत होती है।
गुरूपद सिद्धाँत वचन-30 में श्रीगुरूदेव ने फरमाया हैः-
सार निर्णय यह है कि गुरू रहनी वाला अपने उदार आत्मा से शिष्य के कल्याण की खातिर हर वक्त सत्धर्म उपदेश शिष्य को देवे और भली प्रकार करके शिष्य की उन्नति की खातिर यत्न करे और चित में रंचक भी शिष्य से सेवा का भाव न रखे, यानि दयालु होकर हर वक्त कृपा करे।
शिष्य का फर्ज़ है कि अपने ऐसे गुरू के वचन में अपने जीवन को मिटा देवे और आज्ञाकारी पद हासिल करे, तब संसार में धर्म का सूरज प्रकाश होता है और सब जीव धर्मवान हो जाते हैं। ऐसी भावना ही कल्याणकारी है। ईश्वर गुरू को गुरुपद का निष्चय देवे और शिष्य को शिष्य का अधिकार बख्शे। सब प्रेमी सत्बुद्धि द्वारा यह विचार निश्चय में धारण करें।