ॐ ब्रह्म सत्यम् सर्वाधार!
*भगत जी का भौंरा-अलीपुर आश्रम*
-ओम बख्शी-
संगत मे बहुत कम लोगों जानते होंगे कि भगत बनारसी दास ने ज़मीन के नीचे एक भौंर मे बहुत समय तक दिन रात तपस्या की थी। भगत जी का भौंरा वही स्थान है जहां आज अलिपुर-जहाँगीरपुर का समता योग आश्रम है। भौंरा एक बहुत छोटा सा तहखाना होता है जिसमे कि साधक लोग स्वयं को बंद कर कुछ दिन एकांत मे तप करते है।
वास्तव में भगत जी स्थाई रूप मे यहीं आश्रम बना कर रहने का मन बना चुके थे। इसी विचार से उन्होंने यहां पर आश्रम का निर्माण कार्य शुरू किया था। निर्माण पूरा होने से पहले ही उन्होंने शरीर त्याग दिया।
देश के विभाजन के समय शुभ-स्थान गंगोठियाँ पाकिस्तान से बहुत से लोग जहाँगीरपुर (अलीपुर) मे आकर बसे। अधिकतर लोग महाराज महात्मा मंगत राम जी की बरादरी अथवा परिवार से संबन्धित थे। इन्हीं मे से एक आदरणीय पुष्पनाथ जी भी थे जो कि रिश्ते में महाराज जी के भतीजे लगते थे। भगत जी जहाँगीर पुर मे इन्हीं के घर ठहरा करते। मै भगत जी को जानता तो था पर पहली बार मेरा उनसे संपर्क, जहां तक मुझे याद है, सन 1985 या 1986 में हुआ जबकि यहां आश्रम बनाने की बात चल रही थी।
आश्रम निर्माण मे सहयोग:
आश्रम बनाने के विचार से बिरादरी के कुछ बडे बुज़ुर्गों ने दो हज़ार छ: सौ रुपया इकट्ठा प्रेमी रघुनाथ जी के पास रख दिये। किंतु आपस मे सहमति न बन पाई। तीव्र मतभेद उत्पन्न हो गए और रघुनाथ जी ने यह कह कर इक्त्रित राशी देने से साफ़ मना कर दिया कि वे यह पैसा किसी मन्दिर को दान कर देंगे। परिणामस्वरूप आश्रम निर्माण का कार्य शुरू ना हो सका। कुछ दिनों बाद भगत जी वापिस आए तो एक वरिष्ठ प्रेमी सुच्चानंद (हरबंस लाल) की सलाह पर आश्रम भवन बनवाने की ज़िम्मेवारी मुझे सौंपने का निर्णय कर लिया। मै उन दिनों चंडीगढ मे नौकरी करता था। हर हफ्ते के अंत मे दो तीन दिन के लिये गाँव अपने घर आना होता। शनिवार रात्रि हरबंस लाल जी के घर पर सत्संग था। मै भी सत्संग मे हाज़िर हुआ। सत्संग समाप्ति पर अचानक भगत जी ने पूछा ‘ओम परकाश कौन है?’ शायद मेरे बारे मे उन्हें आदरणीय पुष्पनाथ जी से कुछ मालूम हुआ था। वे अपनी पोठोव्हारी बोली मे बात किया करते थे, सुनकर मैने अपना परिचय दिया तो उन्होंने कहा “ लाल जी काम शुरु करो, पैसे ले लो”। अगले दिन ही रघुनाथ जी ने मांगे बिना ही वह 2600/- रुपऐ मेरे हवाले कर दिए। इस प्रकार आश्रम का कार्य आरंभ हुआ। बाद मे भगत जी आते जाते रहे, हर बार पाँच-सात सौ, जो भी राशि उन्हें शिष्यों से मिलती, वह निर्माण कार्य के लिये हमें दे देते। अपने अंतिम समय में भी, वे करनाल में ऋषी जी से कह गए थे कि उनके (भगत जी के) पास 2900/- रुपए हैं इन्हें जहाँगीरपुर ओम प्रकाश को दे देना। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि करनाल जाने से पहले भगत जी जगाधरी से होते जहाँगीर पुर आए और फिर, ऊना, अम्बाला आदि स्थानो पर शिष्यों से मिल पर करनाल मेजर ॠषि जी के घर पहुँचे थे।
समय की पाबंदी और आहार:
भगत जी समय की पाबंदी का पूरा ध्यान रखते थे। शुरू शुरू मे तो उनके इस अनुशासन से मै हैरान रह जाता था जब कि एकबार मै उनके पास निश्चित समय से थोडा सा देर से पहँचा। “लाल जी, आने मे देरी हो गई!!” उन्होंने कहा था।
दूसरी बात उनके आहार के बारे मे है। एकबार जब वे आदरणीय पुष्पनाथ जी के घर ठहरे हुए थे, मैने उन्हें अपने घर भोजन की प्रार्थना की। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, इस से पहले मेरा उनसे सीधा संपर्क नहीं था। अत: मेरे मन मे कहीं न कहीं यह जानने की इच्छा उठ रही थी, कि इनका आहार कैसा है, क्यों कि साधक और योगियों के लिए सात्विक आहार तथा मात्रा का बहुत महत्व होता है। गुरुदेव की अमरवाणी मे भी आया है:
सूक्ष्म निन्द्रा अल्प आहार, साचे नाम संग कियो प्यार।
शायद, उन्हे अपने घर भोजन पर बुलाने मे मेरे मन मे यही सवाल रहा होगा कि इनका आहार कैसा है। उस समय तो वे नहीं आ पाए पर बाद एक दिन अचानक उनका संदेश आया कि वे आज भोजन हमारे घर ही करेंगे। मै उस समय चंडीगढ मे था। सप्ताहांत गाँव आने पर पता चला कि भगत जी हमारे घर भोजन करने आए थे। मैने तुरंत उनके आहार बारे पूछा। उत्तर मिला कि उन्होंने हालयां के साग की अदरक के तडके वाली थोडी सी सब्ज़ी और एक छोटी सी तवे की चपाती ही ली थी। चपाती हमारे दो कौर से भी कम रही होगी।
इस के बाद मेरे मन मे किसी तरह का भी संशय ना रहा।
नाम दान लेने की इच्छा: मेरे मन मे भगत जी से नाम दान लेने की इच्छा हुई पर मै उन्हें कह ना सका। जहाँगीर पुर से उनके चले जाने के बाद मैने सोच लिया कि -करनाल से वापसी पर नाम दीक्षा की प्रार्थना करूंगा। पूरा विश्वास था कि वे मना नहीं करेंगे। किंतु, ईश्वर को ये मंज़ूर न था। ॐ ब्रह्म सत्यं सर्वाधार।